‘‘इंकलाब जिन्दाबाद !’’

‘इंकलाब जिन्दाबाद !’ शहीद भगतसिंह और उनके साथियों का प्रिय नारा था। यह नारा उन्हें इतना प्रिय था कि उन्होंने इस नारे को न केवल ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का आधिकारिक नारा बनाया हुआ था बल्कि इस नारे को उन्होंने 1929 में असेम्बली में बम फेंकते वक्त भी और अपने फांसी पर चढ़ने से पहले भी लगाया था।

‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ का नारा सबसे पहले मौलाना हसरत मोहानी ने 1921 में दिया था और फिर यह नारा क्रांतिकारियों का सबसे प्रिय नारा बन गया। ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ (‘क्रांति अमर रहे!’ ‘लांग लिव द रिवोल्यूशन’) भारत की आजादी की लड़ाई के दिनों से लेकर आज तक एक लोकप्रिय नारा है।

इस नारे की लोकप्रियता इतनी ज्यादा है कि इस नारे को वह हर व्यक्ति लगाता है जो स्थापित तंत्र के एक विरोधी अथवा विद्रोही के रूप में अपने आपको पेश करता है। हकीकत में ऐसा व्यक्ति, ऐसी संस्था अथवा राजनैतिक दल का हो सकता है जिसका इंकलाब से दूर का भी वास्ता न हो। मसलन राहुल गांधी, अरविन्द केजरीवाल हो अथवा फिर समाजवादी विचारधारा वाले या सरकारी वामपंथी आदि हों, ये सभी इस नारे को लगाते हैं।

हद तो यह होती है कि शराब घोटाले में फंसे (या फंसाये गये) आप पार्टी के नेता जेल जाते वक्त इस नारे को लगाते हैं और घोषणा करते हैं कि वे जेल जाने से नहीं डरते हैं क्योंकि वे ‘भगतसिंह को मानने वाले’ हैं। आप पार्टी और इसके धूर्त नेता रंग बदलने में इतने माहिर हैं कि बेचारी गिरगिट भी अगर इन को देख ले तो रंग बदलना भूल जाये। शराब घोटाले में फंसे मनीष सिसोदिया का भला भगतसिंह से क्या लेना-देना है।

‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ की मनमानी व्याख्या और बेजा इस्तेमाल भगतसिंह के जमाने से ही आम है। ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ नारे की व्याख्या जब ‘मार्डन रिव्यू’ के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय ने गलत ढंग से की थी तो भगतसिंह ने उन्हें एक पत्र लिखा था। इस पत्र में भगतसिंह ने ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ की जो व्याख्या की थी वह गौर करने लायक है। (ध्यान रहे यह पत्र 22 दिसम्बर 1929 को भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त ने मिलकर लिखा था)। उन्होंने कहा था,

‘‘एक वाक्य में क्रांति का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा’ है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार से ही कांपने लगते हैं। यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढ़िवादी शक्तियां समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं। यही परिस्थितियां मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं।

‘‘क्रांति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थाई तौर पर ओत-प्रोत रहेगी जिससे कि रूढ़िवादी शक्तियां मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संगठित न हो सकें। यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है हमारा अभिप्राय जिसको हृदय में रखकर हम ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ का नारा ऊंचा करते हैं।’’

क्या ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ नारे से जो आशय भगतसिंह का था वही आशय राहुल गांधी, अरविन्द केजरीवाल, भगवंत सिंह मान, कन्हैया कुमार, अखिलेश यादव, भाकपा-माकपा आदि, आदि का है। क्या ये वही रूढ़िवादी ताकतें नहीं हैं जिनके बारे में भगतसिंह ने कहा था कि ये समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं। क्या ये वही ताकतें नहीं है जो चाहती हैं कि पुरानी व्यवस्था सदैव सदैव के लिए रहे।

फिर सवाल उठता है कि ये जब ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ का नारा लगाते हैं तो इनका मतलब क्या होता है।

ये लोग जब ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ का नारा लगाते हैं तो इनका आशय एक खास किस्म के परिवर्तन से होता है। उस परिवर्तन से इनका आशय होता है मतदाता सत्ता में बैठे राजनीतिक दल के स्थान पर इनके दल को चुनाव में जिताकर सत्ता में पहुंचाये। यानी इनका सारा इंकलाब चुनाव को लेकर है। ये अपने आपको सत्तारूढ़ दल से ज्यादा आम लोगों के प्रति फिक्रमंद, कुछ मामलों में उग्र (रेडिकल) तो कुछ मामलों में नवीन दिखाना चाहते हैं।

ये कभी भी भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त की तरह अपने इन्कलाब की धारणा को स्पष्ट नहीं करते हैं। ये सिर्फ भारत की जनता में ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ नारे की लोकप्रियता और इस नारे से अभिन्न रूप से जुड़े महान क्रांतिकारी भगतसिंह की प्रतिष्ठा को भुनाते हैं। इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि भगतसिंह जब इंकलाब की बात करते हैं तो उनका आशय वर्तमान व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन से था। वर्तमान व्यवस्था से भगतसिंह का मतलब वर्तमान पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था से था तो क्रांति के बाद वे जिस समाज की स्थापना करना चाहते थे उससे उनका आशय समाजवाद से था। और उनके समाजवाद का सीधा मतलब था एक ऐसा शोषणविहीन समाज बनाना जहां मजदूरों-किसानों का राज हो। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद खत्म हो।

भगतसिंह बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित थे। वे महान क्रांतिकारी व मजदूर वर्ग के शिक्षक लेनिन से प्रभावित थे। यह जगजाहिर बात है कि भगतसिंह के विचारों में वैज्ञानिक स्पष्टता लेनिन की पुस्तकों के अध्ययन के फलस्वरूप ही आ सकी थी। इस रूप में कुछ लोग भगतसिंह को भारत के संदर्भ में बोल्शेविक क्रांतिकारी के रूप में पेश करते हैं तो ठीक ही करते हैं। भगतसिंह ने बहुत थोड़े समय में ही राष्ट्रवादी आतंकवादी क्रांतिकारी से बोल्शेविक क्रांतिकारी की यात्रा पूरी कर ली थी।

‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ की धारणा को लेकर जिस तरह से अपने युग में भगतसिंह को संघर्ष करना पड़ा था ठीक उसी तरह वह वैचारिक संघर्ष आज नये रूप में मौजूद है। भगतसिंह के समय में ‘मार्डन रिव्यू’ के सम्पादक अपने ढंग से व्याख्यायित कर उनका विरोध कर रहे थे। वे इंकलाब की महान विरासत से अलग खड़े थे और उनके विरोधी थी। भगतसिंह इंकलाब की महान विरासत को न केवल अपनी धारणा में समेटे हुए थे बल्कि वे उसे नूतन संदर्भ, नूतन प्राण व नूतन आभा प्रदान कर रहे थे। वे उस युग में पले-बढ़े थे जब महान समाजवादी अक्टूबर क्रांति विश्व व्यापी प्रभाव पैदा कर रही थी। लेनिन रूस की सीमाओं से बाहर अपना क्रांतिकारी प्रभाव पैदा कर रहे थे। तब बोल्शेविक क्रांति की चर्चा मात्र से ब्रिटिश साम्राज्यवादी थर-थर कांपने लगते थे। बोल्शेविक के शक में लोगों को जेल में डाल देते थे।

आज ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ के नारे को लगाने में राहुल-अरविन्द जैसे लोगों को कोई हिचक नहीं है। यहां तक कि हिन्दू फासीवादी भी गाहे-बगाहे इस नारे को लगा देते हैं और भारत के महान क्रांतिकारियों को अपने कथित राष्ट्रवाद का ‘पोस्टर बॉय’ बना देते हैं। ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ नारे के क्रांतिकारी अंतर्य को नष्ट कर ये उसे अपनी बाजारू महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं। जाहिर सी बात है कि ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ के नारे के वास्तविक अंतर्य को स्थापित करने का अर्थ है कि भारत के मजदूर वर्ग सहित समाज के शोषित-उत्पीड़ितों के दोस्त और दुश्मन की पहचान ठीक-ठीक स्थापित की जाए। राहुल, अरविन्द केजरीवाल जैसे भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के दोस्त बनने की आड़ में भारत के मजदूर-मेहनतकशें के दुश्मनों की ही सेवा करते हैं। ये ‘रूढ़िवादी शक्तियों’ के प्रतीक पुरुष हैं जो वर्तमान व्यवस्था की हिफाजत ज्यादा शातिर ढंग से करना चाहते हैं। ये इंकलाब को सिर्फ चुनावी मतदान के जरिये बदलाव तक सीमित कर देना चाहते हैं। इनके इंकलाब का ज्यादा से ज्यादा मतलब यह है गुलामों के हाथों में पड़ी बेड़ियों का रंग बदल दिया जाए। जो घाव बेड़ियों के पड़े रहने से बन गये उन पर कुछ मरहम लगा दिया जाए। इसके उलट भारत के मजदूर-मेहनतकशों और उनकी नौजवान संतानों के सामने सवाल यह खड़ा है कि कैसे गुलामी की बेड़ियों से छुटकारा मिले। कैसे पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का नाश हो। कैसे एक ऐसी समाज व्यवस्था कायम हो ‘जहां मनुष्य जाति की आत्मा स्थायी रूप से क्रांति की भावना से ओतप्रोत रहे’।

‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ का नारा एक युगान्तरकारी नारा है और इस नारे का महत्व मानव जाति के लिए युगों-युगों के लिए है। ‘इंकलाब जिन्दाबाद!’ का आशय सिर्फ यह नहीं है ‘क्रांति जिन्दाबाद’ बल्कि यह भी है कि क्रांति की भावना मनुष्य जाति में सदा अमर रहे।

आलेख

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है

रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के दो वर्ष से ज्यादा का समय बीत गया है। यह युद्ध लम्बा खिंचता जा रहा है। इस युद्ध के साथ ही दुनिया में और भी युद्ध क्षेत्र बनते जा रहे हैं। इजरायली यहूदी नस्लवादी सत्ता द्वारा गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार जारी है। इस नरसंहार के विरुद्ध फिलिस्तीनियों का प्रतिरोध युद्ध भी तेज से तेजतर होता जा रहा है।

अल सल्वाडोर लातिन अमेरिका का एक छोटा सा देश है। इसके राष्ट्रपति हैं नाइब बुकेली। इनकी खासियत यह है कि ये स्वयं को दुनिया का ‘सबसे अच्छा तानाशाह’ (कूलेस्ट डिक्टेटर) कहते ह

इलेक्टोरल बाण्ड के आंकड़ों से जैसे-जैसे पर्दा हटता जा रहा है वैसे-वैसे पूंजीपति वर्ग और उसकी पाटियों के परस्पर संबंधों का स्वरूप उजागर होता जा रहा है। इसी के साथ विषय के प