कम्यून की स्मृति में

.....न केवल फ्रांस में, बल्कि सारी दुनिया में सर्वहारा वर्ग पेरिस कम्यून के पुरुषों और कम्यून की विरासत क्या है?

कम्यून की उत्पत्ति

कम्यून की उत्पत्ति अपने-आप हो गयी थी। संगठित ढंग से सचेत रूप में किसी ने उसकी तैयारी नहीं की थी। जर्मनी के साथ किये गये असफल युद्ध, देश के घिराव के दरम्यान सहे गये कष्टों, सर्वहारा वर्ग में फैली हुई बेकारी तथा निम्न मध्यम वर्गों की तबाही ने; ऊपर के वर्गों के खिलाफ तथा उन अघिकारियों के खिलाफ जिन्होंने इन्तहाई निकम्मापन दिखलाया था आम जनता के रोष ने, मजदूर वर्ग के अन्दर- जो अपनी दशा से असन्तुष्ट था और एक नयी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए प्रयत्न कर रहा था- व्याप्त बैचेनी ने, राष्ट्रीय असेम्बली की उस प्रतिक्रियावादी बनावट ने, जिससे गणतन्त्र के भविष्य के बारे में आशंकाएं उत्पन्न हो रही थीं- इन सब चीजों ने तथा इनके अलावा और भी अनेक दूसरी चीजों ने मिलकर पेरिस की आबादी को 18 मार्च की क्रांति करने के लिए मजबूर कर दिया था। इस क्रांति ने अनअपेक्षित रूप से सत्ता को राष्ट्रीय गार्डों के हाथ में, मजदूर वर्ग और उस निम्न-पूंजीपति वर्ग के हाथ में रख दिया था जिसने उसका साथ दिया था।

यह इतिहास की एक अभूतपर्व घटना थी। उस समय तक सत्ता हमेशा, भूस्वामियों और पूंजीपतियों के हाथों में, अर्थात् उनके उन विश्वसनीय एजेण्टों के ही हाथों में रहती थी जो तथाकथित सरकार चलाते थे। 18 मार्च की क्रांति के बाद, जब एम. तियरे की सरकार अपनी फौजों, पुलिस और अफसरों के साथ पेरिस से भाग गयी, तो जनता स्वयं स्वामिनी बन गयी और सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथों में पहुंच गयी। परन्तु, आघुनिक समाज में, आर्थिक रूप से पूंजी द्वारा गुलाम बनाया गया सर्वहारा वर्ग तब तक राजनीतिक रूप से प्रभुत्वशाली नहीं बन सकता जब तक कि वह उन जंजीरों को नहीं तोड़ देता जो पूंजी से उसे बांघे हुए है। इसीलिए अनिवार्य था कि कम्यून का आन्दोलन समाजवादी रूप ले ले, अर्थात्, पूंजीपति वर्ग के शासन को, पूंजी के शासन को, उलटने की, और समकालीन सामाजिक व्यवस्था की नींवों के नष्ट कर देने की, वह कोशिश करे।

शुरू-शुरू में यह आन्दोलन एकदम अस्पष्ट और अव्यवस्थित था। उसमें ऐसे देशभक्त सम्मिलित हो गये थे जो यह आशा करते थे कि कम्यून जर्मनों के साथ फिर युद्ध शुरू कर देगा और उसे सफलता तक ले जायेगा। उसे उन छोटे दुकानदारों का भी समर्थन प्राप्त था जो इस बात से डर रहे थे कि उनके कर्जां और लगान के भुगतान को स्थगित न कर दिया गया तो वे बर्बाद हो जायेंगे (सरकार ने कर्जों और लगान के भुगतान को स्थगित करने से इन्कार कर दिया था, पर कम्यून से उन्होंने उसे स्थगित करा लिया था।) अन्त में, उसे, आरम्भ में, उन पूंजीवादी प्रजातन्त्रवादियों की भी सहानुभूति प्राप्त थी जो इस बात से डरते थे कि प्रतिक्रियावादी राष्ट्रीय असेम्बली (”देहाती उजड्ड लोग, बर्बर जमींदार“) पुनः एक राजतन्त्र की स्थापना कर देगी किन्तु; इस आन्दोलन में मुख्य भूमिका निस्सन्देह मजदूरों ने (विशेष रूप से पेरिस के कारीगरों ने) अदा की थी- द्वितीय साम्राज्य के अन्तिम वर्षों के दौरान इन मजदूरों के बीच सक्रिय रूप से समाजवादी प्रचार किया गया था और उनमें से अनेक तो अन्तर्राष्ट्रीय संघ के भी सदस्य थे।

मजदूर ही वफादार रहे

अन्त तक केवल मजदूर कम्यून के प्रति वफादार रहे थे। पूंजीवादी प्रजातन्त्रवादियों और निम्न-पूंजीवादियों ने जल्दी ही उससे सम्बन्घ विच्छेद कर लिया था; पूंजीवादी प्रजातन्त्रवादी तो आन्दोलन के क्रांतिकारी-समाजवादी, सर्वहारा वर्गीय चरित्र से भयभीत हो उठे थे, भयभीत होकर भाग खडे़ हुए थे, और निम्न-पूंजीवादियों ने उससे उस समय अपने को अलग कर लिया था जिस समय उन्हें लगने लगा कि कम्यून की पराजय निश्चित है। केवल फ्रांसीसी सर्वहारा ने अपनी सरकार का निर्भय होकर और अनथक रूप से समर्थन किया था, उसके लिए- अर्थात् मजदूर वर्ग की मुक्ति के लक्ष्य के लिए, तमाम श्रमजीवियों के वास्ते एक अघिक अच्छे भविष्य के लिए- अकेले वही लड़े और कुर्बान हो गये थे।

पहले के अपने मित्रों द्वारा छोड़ दिये जाने और बेसहारा हो जाने के बाद, कम्यून की हार अनिवार्य हो गयी थी। फ्रांस का सम्पूर्ण पूंजीपति वर्ग, तमाम जमींदार, स्टॉक-ब्रोकर (कम्पनियों के हिस्सों के दलाल), फैक्टरियों के मालिक, बड़े और तमाम छोटे डाकू, तमाम शोषक उसके खिलाफ मिल कर खड़े हो गये। बिस्मार्क द्वारा समर्थित (उस बिस्मार्क द्वारा जिसने क्रांतिकारी पेरिस को कुचल देने के लिए एक लाख फ्रांसीसी युद्ध-बन्दियों को रिहा कर दिया था) मिला-जुला पूंजीवादी मंत्रि-मण्डल पेरिस के सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध प्रान्तों के ज्ञान-शून्य किसानों और निम्न-पूंजीवादियों को भड़काने में सफल हो गया, और पेरिस के आघे हिस्से के इर्द-गिर्द उसने एक लौह घेरा डाल दिया (उसके दूसरे आघे हिस्से को जर्मन सेना घेरे हुए थी)। फ्रांस के कुछ बड़े शहरों (मार्सिये, ल्यान्स, सेन्ट अतीनी, दिजॉन, आदि) में मजदूरों ने भी सत्ता पर कब्जा करने, कम्यून की घोषणा करने और पेरिस की सहायता के लिए आने का प्रयास किया; किन्तु ये प्रयास अल्पकालिक सिद्ध हुए। पेरिस, जिसने सर्वप्रथम सर्वहारा विद्रोह का परचम लहराया था, केवल अपने सहारे खड़ा रहने के लिए मजबूर हो गया था और उसका विध्वंस लाजमी हो गया था।

विजय की आवश्यकताएं

विजयी सामाजिक क्रांति के लिए कम से कम दो चीजें आवश्यक हैं- उत्पादक शक्तियां उच्च रूप से विकसित हों और एक ऐसा सर्वहारा वर्ग मौजूद हो जो क्रांति के लिए अच्छी तरह तैयार है।

पर, 1871 में, इन दोनों बातों का अभाव था। फ्रांसीसी पूंजीवाद का तब तक कम ही विकास हुआ था और फ्रांस उस समय मुख्यतया एक निम्न-पूंजीवादी (शिल्पकारों, किसानों, दुकानदारों, आदि का) देश था। दूसरी तरफ, मजदूरों की कोई पार्टी नहीं थी; मजदूर वर्ग लम्बे संघर्ष की पाठशाला से अभी तक नहीं गुजरा था और तैयार नहीं था। अघिकांशतया तो उसे स्पष्ट रूप से यह भी पता नहीं था कि उसे क्या करना है और किस तरह करना है। सर्वहारा वर्ग का कोई संजीदा राजनीतिक संगठन नहीं था और न मजबूत यूनियनें और सरकारी समितियां ही तब तक बनीं थीं...

किन्तु, जिस मुख्य चीज की कम्यून के पास कमी थी- वह था समय। उसे इस बात का अवसर ही नहीं मिला कि परिस्थिति का अच्छी तरह लेखा-जोखा कर सके और अपने कार्यक्रम को पूरा करने में जुट सके।

उसे काम शुरू करने का वक्त ही नहीं मिला था कि वार्साई में जमी हुई सरकार ने सम्पूर्ण पूंजीपति वर्ग के समर्थन से पेरिस के ऊपर हमला शुरू कर दिया। कम्यून को मुख्यतया आत्म-रक्षा के काम में जुट जाना पड़ा। एकदम आखिरी समय तक, 21 से 28 मई तक, उसे किसी और चीज के बारे में गम्भीरता से सोचने-विचारने का समय नहीं मिला।

कम्यून के अविस्मरणीय काम

लेकिन, इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद, इस बात के बावजूद कि वह बहुत थोड़े समय तक ही जीवित रह सका, कम्यून कुछ ऐसे कानून पास करने में सफल हुआ था जो उसके वास्तविक महत्व और लक्ष्यों की विशिष्टता को काफी स्पष्ट कर देते थे। कम्यून ने खड़ी फौजों को, शासक वर्गों के हाथों के उस अन्घे अस्त्र को, समाप्त कर दिया और समस्त जनता को हथियारबन्द कर दिया। उसने चर्च (ईसाई घर्म-संघ) को राज्य से अलग कर दिया, घार्मिक संस्थाओं को सरकार की और से दी जाने वाली रकमों को (अर्थात् पादरियों को राज्य की ओर से दी जाने वाली तनख्वाहों को) समाप्त कर दिया, जन शिक्षा को शुद्ध रूप से घर्म-निरपेक्ष बना दिया, और, इस प्रकार पादरियों की राम नामी ओढे़ सशस्त्र सैनिकों पर उसने जबर्दस्त प्रहार किया।

विशुद्ध रूप से सामाजिक क्षेत्र में कम्यून बहुत कम हासिल कर पाया, परन्तु यह बहुत कम भी जनता की, मजदूरों की सरकार के रूप में उसका स्वरूप बहुत साफ तौर पर उजागर करता है। नानबाइयों की दुकानों में रात्रि-श्रम पर पाबंदी लगा दी गयी; जुर्माने की प्रणाली का, जो मजदूरों के साथ कानूनी रूप प्राप्त डकैती थी, खात्मा कर दिया गया। आखिरी चीज, वह प्रसिद्ध आज्ञप्ति जारी की गयी, जिसके अनुसार मालिकों द्वारा परित्यक्त अथवा बंद किये गये सारे मिल-कारखाने और वर्कशॉप उत्पादन फिर से शुरू करने के लिए मजदूर आर्टेलों को सौंप दिये गये। और मानो सच्ची जनवादी, सर्वहारा सरकार के अपने स्वरूप पर जोर देने के हेतु कम्यून ने यह निर्देश दिया कि समस्त प्रशासनिक तथा सरकारी अधिकारियों के वेतन मजदूर की सामान्य उजरत से अधिक नहीं होंगे और किसी भी सूरत में 6000 फ्रांक (200 रूबल से कम प्रति माह) प्रति वर्ष से ज्यादा नहीं होंगे।

इस तमाम पगों ने पर्याप्त स्पष्टता के साथ यह दिखा दिया कि कम्यून जनता की गुलामी और शोषण पर आधारित पुरानी दुनिया के लिए घातक खतरा था। इसी कारण बुर्जुआ समाज तब तक चैन महसूस नहीं कर सका, जब तक पेरिस की नगर दूमा पर सर्वहारा वर्ग का लाल झंडा फहराता रहा। और जब संगठित सरकारी शक्तियां क्रांति की बुरी तरह संगठित शक्तियों पर हावी होने में सफल हो गयीं, तो जर्मनों द्वारा पराजित और परास्त देशभाइयों के विरुद्ध जवांमर्दी दिखाने वाले बोनापार्त के जनरलों, इन फ्रांसीसी रेन्नेनकांफों और मेल्लेर-जाकोमेस्कियों ने ऐसा नरसंहार आयोजित किया, जैसा पेरिस ने पहले कभी नहीं देखा था। लगभग 30,000 पेरिसवासियों को नृशंस सिपाहियों ने गोलियों से भून डाला, लगभग 45,000 गिरफ्तार किये गये, जिनमें से बहुतों को बाद में मौत की सजा दी गयी, हजारों को काला पानी की सजा दी गयी तथा खास इलाकों में बसाया गया। पेरिस कुल मिलाकर अपने लगभग 1,00,000 बेटे-बेटियों से हाथ धो बैठा, जिनमें सारे व्यवसायों के सर्वोत्तम मजदूर भी थे। ....... कम्यून के सिपाहियों का स्मरण करते हुए उनका फ्रांस के मजदूर ही नहीं, अपितु पूरे संसार के सर्वहारा सम्मान करते हैं। इसलिए कि कम्यून ने किसी स्थानीय अथवा संकीर्ण राष्ट्रीय कार्यभार के लिए नहीं, अपितु पूरी मेहनतकश मानवजाति, समस्त पद-दलितों तथा उत्पीड़ितों की मुक्ति के लिए लड़ाई की थी। सामाजिक क्रांति के लिए सबसे अग्रगामी योद्धा के रूप में कम्यून ने वहां सर्वत्र सहानुभूति प्राप्त की है, जहां कहीं दुख झेलता तथा संघर्ष करता सर्वहारा वर्ग है। उसका जीवन-मरण, मजदूरों की सरकार, जिसने दुनिया की राजधानी को छीनकर दो माह से ऊपर अपने हाथों में रखा, सर्वहारा का वीरतापूर्ण संघर्ष तथा अपनी पराजय के बाद उस द्वारा झेली गयी यंत्रणाएं- इन सबने लाखों-लाख मजदूरों के मन को तरंगित किया, उनमें आशा जगायी तथा समाजवाद के लिए उनकी सहानुभूति अर्जित की। पेरिस में तोपों की गर्जन ने सर्वहारा वर्ग की सबसे पिछड़ी श्रेणियों को गहरी नींद से जगाया तथा क्रांतिकारी-समाजवादी प्रचार की संवृद्धि को संवेग प्रदान किया। इसी कारण कम्यून का ध्येय मरा नहीं; वह आज तक हममें से प्रत्येक में जीवित है।

कम्यून का ध्येय- यह सामाजिक क्रांति का ध्येय, मेहनतकशों की पूर्ण राजनीतिक तथा आर्थिक मुक्ति का ध्येय है, यह पूरी दुनिया के सर्वहारा वर्ग का ध्येय है। और इस अर्थ में वह अमर है। (लेनिन के लेख कम्यून की स्मृति में का एक अंश)

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