
अपनी शादी के चंद रोज बाद ही अपने पति राजा रघुवंशी ही हत्या कराने की आरोपी सोनम रघुवंशी आजकल समाचार चैनलों व सोशल मीडिया की चहेती खबर बनी हुयी है। सभी समाचार प्रसारणकर्ता गुनाह साबित होने से पहले ही सोनम को दोषी मान आधुनिक जमाने की लड़कियों-महिलाओं को गालियां देने और इस तरह अपने पुरुष प्रधान मस्तिष्क का रोष उतारने में लगे हैं।
सोनम के बहाने अब कुंवारे व शादीशुदा पुरुषों में ये विलापी चैनल पत्नी से मारे जाने या मरवाये जाने का भय बैठाने में जुटे हैं। एक विलापी चैनल रिपब्लिक भारत तो एन सी आर बी के आंकड़े लाकर बीते कुछ वर्षों में 700 से अधिक पतियों की पत्नियों द्वारा हत्या का दावा करने लगा। कुल मिलाकर समाज में किसी महिला द्वारा गलत काम किये जाने के आरोप पर ही ये विलापी चैनल प्रसन्न हो जाते हैं और उक्त महिला के बहाने सारी महिलाओं को ही अपराधी ठहराने में जुट जाते हैं। समाज में मौजूद पुरुष प्रधान सोच उनके इस विलाप को सहज ही स्वीकार कर महिलाओं के बिगड़ने की उनकी गाथा को सच मानने लगती है।
ये पुरुष प्रधान विलापी चैनल तब सक्रिय नहीं होते जब किसी महिला की उसका पति दहेज के लिए या अन्य किसी वजह से हत्या कर देता है। जब महिलायें ससुराल में जला कर मार दी जाती हैं या महिलाओं से यौन हिंसा-छेड़छाड़-बलात्कार होते हैं तो ये इनके लिए कोई खास खबर नहीं होती। दिल्ली में एक पुरुष पुलिसकर्मी ठेला लगाने वाली महिला से हाथापाई करता है ये भी खबर नहीं बनती है। शासन-सत्ता में बैठे लोग महिलाओं से तरह-तरह की हिंसा-अत्याचार करते हैं, ये भी इन चैनलों के लिए खबर नहीं बनती।
शायद इन चैनलों में बैठे पुरुष प्रधान मस्तिष्कों के लिए ये सब बातें तो पुरुषों के जन्म सिद्ध अधिकार सरीखी हैं। ये शायद मानते हैं कि पत्नी की पिटाई व हत्या पुरुष का अधिकार है। ये शायद महिलाओं से छेड़छाड़-यौन हिंसा को पुरुषों का अधिकार मानते हैं इसलिए इन्हें खबर मानने से ही इंकार कर देते हैं।
इनके लिए खबर तब बनती है जब इनके पुरुष प्रधान मस्तिष्क को चोट पहुंचाने का किसी महिला द्वारा कृत्य होता है। तब ये उसे खलनायिका बना सारी नारी जाति को उपदेश देने में जुट जाते हैं। ये इस सामान्य से तथ्य को भी नहीं देखते कि महिलाओं के साथ हो रही हिंसा की संख्या के आगे महिलाओं द्वारा पुरुषों के साथ हिंसा के मामले 1 प्रतिशत से भी कम हैं। इसीलिए इनका पत्रकारिता धर्म पुरुष प्रधान सोच से लैस समाज में पुरुषों को सुधारने, महिला हितों के प्रति संवेदनशील बनाने का होना चाहिए। पर जब पत्रकारिता करने वाले खुद ही पुरुष प्रधान सोच से लैस हों तब ये क्या व कैसी पत्रकारिता करेंगे, समझा जा सकता है। ऊपर से जब सत्ता में बैठी फासीवादी पार्टी खुद घोर महिला विरोधी सोच से लैस हो, तब इन चैनलों के महिला विरोधी प्रचार को सत्ता का सहज ही आशीर्वाद हासिल हो जाता है।
जब सत्ता में बैठे संघ-भाजपा के नेता खुद आये दिन अपनी महिला विरोधी हरकतें करते व बयान देते नजर आते हों तो समाचार चैनलों का महिला विरोधी कवरेज से भर जाना कहीं से अजीब नहीं है। दिक्कत महज इस बात की है कि महिला विरोधी कवरेज करते हुए भी ये खुद महिला सशक्तिकरण के दावे करते हैं।
इनकी विलापी कवरेज पुरुषों को पत्नियों को शक की निगाह से देखने, उनसे आत्मरक्षा करने के उपदेश दे रही है। इनकी नजर में हर आधुनिक लड़की बदचलन-बिगड़ी है और इनका सामंती मन उन्हें फिर से घर की चहारदिवारी में कैद करने को बेचैन है। पर भूलकर भी ये खुद की या पुरुषों की बदचलनी पर निगाह डालने को तैयार नहीं हैं। धिक्कार है इन चैनलों पर।