आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
इसके बाद तो फिर बाकी संघियों में होड़ सी लग गई। सभी अपने ‘प्रभु राम’ की ओर भक्ति भाव से देखते हुए उनके ‘मन की बात’ में कही गई बात में अपनी तरफ से कुछ जोड़ते हुए उसी बात को दोहराने लगे। रविशंकर प्रसाद से लेकर धनखड़ तक।
इसी तरह संघी लेखकों ने कहना शुरू कर दिया कि राम, भारतीय संविधान की चेतना हैं, वह संविधान के आदर्शों में समाये हुए हैं। इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी ने अपने अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किया। इसमें कहा गया कि राम मंदिर के निर्माण के साथ ही अगले हजार वर्षों तक के लिए ‘राम राज्य’ की नींव पड़ गई है यह एक नए कालचक्र की शुरुवात है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने नेशनल इलेक्ट्रोहोम्योपैथी के कार्यक्रम में जाकर कह दिया कि राम और रामराज का आदर्श हमारे संविधान में निहित है। फिर आगे उन्होंने कहा कि मुझे बहुत पीड़ा होती है जब कोई अज्ञानी इतिहास से अनभिज्ञ, यह हलफनामा दे देते हैं कि राम काल्पनिक हैं; कि जो राम को नहीं मानते हैं वे संविधान का अपमान करते हैं।
के मूल प्रतियों में खंड तीन में मौलिक अधिकारों के जिक्र से पहले राम, लक्षमण और सीता के चित्र हैं। मगर संविधान की मूल प्रति में केवल यही तीन चित्र नहीं हैं बल्कि इसमें भारत के इतिहास के अलग-अलग दौर को, कुल 22 चित्रों के जरिए उकेरा गया है। इसका एक मकसद यह भी था कि आधुनिक काल तक भारत के इतिहास की विरासत, संस्कृति, परंपराओं और जीवन को इसमें प्रदर्शित किया जाए।
भारत के नए शासक जिन्हें भगत सिंह ने काले अंग्रेज कहा था, अपने दिल दिमाग से ही समझौतापरस्त थे। अंग्रेजों के साथ समझौता, कुछ कमजोर संघर्ष और जन संघर्षों का इस्तेमाल तथा कुछ आधुनिकता के साथ पुराने विचारों, मूल्य-मान्यताओं के साथ समझौता; इसकी फितरत थी।
इन प्रतिनिधियों ने संविधान में धर्म और इतिहास के प्रति अपने इसी रुख के हिसाब से ही सर्व धर्म समभाव की नीति अपनाई थी। इसी हिसाब से इसमें चित्र उकेरे गए। इसमें सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ चित्र है। इसी तरह बुद्ध, महावीर से लेकर अकबर, टीपू सुल्तान, महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस आदि के चित्र भी हैं। संविधान के मूल दस्तावेज के सभी चित्र शांति निकेतन के कलाकार नंदलाल बोस और उनके छात्रों द्वारा बनाए गए थे।
मगर जैसा कि हिन्दू फासीवादियों की आदत है कि इतिहास के तथ्यों को तोड़ो मरोड़ो। झूठ और अर्ध सत्य को अपनी अफवाह मशीनरी के जरिए पेश करो, प्रचारित करो। यही धूर्तता भरा काम, हिन्दू फासीवादियों ने यहां भी किया है।
‘राम राज’ की बात संविधान सभा की बहस में, किसी हवाले से आती है। महावीर त्रिपाठी जो कि आजादी के आंदोलन में जेल भी गए थे और कांग्रेस से थे; उन्होंने संविधान सभा में बहस के दौरान अपने भाषणों में रामराज का जिक्र करते हुए कहा था ‘‘अगर धर्मनिरपेक्ष राज्य का मतलब है कि हमारे बच्चे रामायण के बारे में नहीं जानेंगे या गीता या कुरान या ग्रंथ नहीं सुनेंगे?... अगर इस राम राज्य को गायब कर दिया जाए तो भारत राम के बिना अयोध्या हो जाएगा।“
यदि ‘राम राज’ की बातें करके इसे व्यापक बनाने का काम किसी ने आजादी से पहले किया था तो वह महात्मा गांधी थे। महात्मा गांधी का ‘राम राज’ यूटोपिया या काल्पनिक या आदर्श समाज था। एक वर्ण व्यवस्था आधारित समाज व्यवस्था इस आदर्श के मूल में थी। यह विचार धर्म और राजनीति के घालमेल के साथ ही महात्मा गांधी की पुरातनपंथी सोच को भी दिखाता है। लेकिन फिर भी गांधी का यह ‘राम राज’ संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं था। ना ही गांधी सांप्रदायिक थे।
हिन्द स्वराज में (सितंबर 1929) में महात्मा गांधी ने लिखा ‘‘राम राज्य से मेरा मतलब हिंदू राज नहीं है। मेरे राम राज का मतलब है भगवान का राज्य। मेरे लिए राम और रहीम एक ही हैं; मैं सत्य और धार्मिकता के रूप में एक ईश्वर के अलावा किसी अन्य ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। चाहे मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर रहे हों या ना रहे हों। रामायण का प्राचीन आदर्श निस्संदेह सच्चे लोकतंत्र में से एक है जिसमें सबसे तुच्छ नागरिक भी विस्तृत और महंगी प्रक्रिया के बिना त्वरित न्याय सुनिश्चित कर सकता है।“
‘रामराज’ और ‘राम मंदिर’ जैसी बातें और नारे संघ परिवार के एजेंडे में वास्तव में शुरुआत से नहीं थीं। इनका कोर एजेंडा हिन्दू राष्ट्र था जो मुस्लिम और कम्युनिस्ट नफरत पर टिका हुआ था। यह हिन्दू राष्ट्र, हिटलर के नाजीवाद (फासीवाद) और नाजीवादी विचारों से प्रेरित था। यह अखंड भारत की बात करता था।
इन्हीं मुद्दों के जरिए, अंग्रेजी राज में संघ परिवार ने अंग्रेज सरकार के एजेंट के रूप में इनसे सांठ-गांठ करते हुए ‘हिंदुओं की गोलबंदी’ और ‘मुस्लिमों के प्रति घोर नफरत व विरोध’ के इर्द गिर्द अपना विस्तार किया था।
1980 के दशक में जाकर ही ‘राम मंदिर’ के नाम पर जो कुछ भी हुआ, वहां से आर. एस.एस. और भाजपा को आगे बढ़ने का स्वर्णिम अवसर मिल गया। फिर इन्होंने देखते ही देखते महात्मा गांधी के ‘राम राज’ को ‘हिन्दू राष्ट्र’ में बदल दिया। अब गांधी के ‘राम राज’ का अर्थ’ हिन्दू राष्ट्र’ हो गया। यह सब, तब हुआ जब राजीव गांधी की सरकार ने 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा दिया और विश्व हिन्दू परिषद को शिलान्यास की अनुमति दे दी।
इसके बाद ही इस दौर में ‘रामायण’ नामक धारावाहिक का प्रसारण हुआ, अनुमानित तौर पर जिसके 10 करोड़ दर्शक थे। इसके तत्काल बाद ही ‘महाभारत’ का प्रसारण हुआ। आम हिन्दू जनमानस में अतीत के प्रति श्रेष्ठता और गौरव का भाव पैदा करने में इसने मदद की। इसने अपनी बारी में संघ परिवार के प्रसार में भी मदद की। यहां से आगे बढ़ते हुए संघ परिवार ने सितंबर 1990 से ‘रथ यात्रा’ निकाली थी।
2014 के बाद से, विशेषकर 2019 के बाद संघी, घोषित फासीवादी निजाम ‘हिन्दू राष्ट्र’ के काफी करीब पहुंच गये हैं। जनवरी में अयोध्या में ‘राम की प्राण प्रतिष्ठा’ के बाद ‘राम राज’ यानी ‘हिन्दू राष्ट्र’ तो व्यवहार में संघ परिवार ने बना ही दिया है अब ‘संविधान’ को बदल देने की बातें आम होने लगी हैं। नई संसद के उद्घाटन के बाद मोदी सरकार द्वारा बांटी गई संविधान की प्रति मूल प्रति थी।
मूल प्रति में ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष’ शब्द नहीं थे। ये शब्द, इंदिरा गांधी की सरकार ने 42 वां संशोधन करके जोड़े थे। ‘बराबरी (समानता) स्वतंत्रता, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों से संघियों और भाजपाइयों को नफरत है। इसीलिए ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को संविधान से हटाने के लिए, ये संसद में निजी बिल भी पेश कर चुके हैं।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख विवेक देबराय ने भी इस बीच कह दिया है कि ‘‘.. संविधान में कुछ संशोधनों से काम नहीं चलेगा। इसमें समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, न्याय, समानता और स्वतंत्रता का अब क्या मतलब है।’’ साफ है कि जो सीमित न्याय, समानता और स्वतंत्रता जनता को हासिल था उसे खत्म करना संघियों का मकसद है साथ ही समाजवाद और धर्म निरपेक्षता जैसे शब्दों को भी। कुछ भाजपाई सांसदों ने भी संविधान बदल देने की बात कर ही दी है।
यदि उपरोक्त चीजें संविधान में से खत्म हो जाएंगी तो फिर इसमें क्या बचेगा? सिर्फ और सिर्फ एक निरंकुश धर्म आधारित सत्ता; आम अवाम की इच्छा, आकांक्षा और विरोध को कुचलती व रौंदती सत्ता। यहां विपक्ष की पूंजीवादी पार्टियों के लिए भी दो ही रास्ते हैं या तो भाजपा में विलय या फिर समर्पण। विपक्ष मुक्त हो जाने मतलब है निरंकुशता।
यही मोदी, शाह और संघ परिवार का ‘राम राज’ है ‘हिन्दू राष्ट्र’ है। जैसा कि संघी कहते हैं मोदी ही राम हैं राम ही विधान हैं राम ही संविधान है। जो भी समाज में होना है राम यानी मोदी की कृपा से ही होना है। मोदी ही सता के केंद्र हैं। मोदी ही देश की चेतना हैं। इसी चेतना को देव से देश तक, राम से राष्ट्र तक, देवता से राष्ट्र तक-राम से राष्ट्र तक, विस्तारित होना है।
हिन्दू फासीवादियों के गुरू गोलवलकर ने ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ में हिटलर और उसके नाजीवादी जर्मनी की तारीफ करते हुए लिखा है ‘‘नस्ल और इसकी संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने देश के सामी नस्लों यानी यहूदियों का देश से सफाया करके दुनिया को चौंका दिया। नस्ल को लेकर गौरव अपने उच्चतम स्तर पर यहां प्रकट हुआ है। ..यह हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए एक अच्छा सबक है।’’
गोलवलकर ने इसी किताब में आगे कहा है ‘‘हिंदुस्तान में रहने वाली विदेशी नस्लों को या तो हिन्दू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए। .. अपने पृथक वजूद को हिन्दू नस्ल में पूरी तरह मिला लेना चाहिए। .. उन्हें एक नागरिक का अधिकार भी प्राप्त नहीं होगा।“
धर्म के आधार पर पड़ोसी मुल्क के गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का कानून सीएए बनाकर गोलवलकर के या संघ के मकसद के बिल्कुल करीब पहुंच चुका है। इसी तरह समानता और स्वतंत्रता को अब आतंकवाद विरोध और देश विरोध के नाम पर, टुकड़े-टुकड़े गैंग या अर्बन नक्सल के नाम पर खोखला करने की साजिश जारी है।
संविधान को कुछ संशोधनों के जरिए ही मोदी शाह की सरकार ने काफी हद तक खोखला कर दिया है। संशोधन जनता के अधिकारों को मजबूती देने के लिए नहीं बल्कि उन्हें कमजोर या खत्म करने के लिए हैं। संशोधन या बदलाव की बातें समानता, स्वतंत्रता, समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता को खत्म या कमजोर करने के लिए ही हैं।
संविधान को कमजोर करने की परिणति सत्ता के भयानक केन्द्रीकरण के रूप में भी हुई हैं। नोटबंदी और लाकडाउन के फैसले, मोदी और पी एम ओ के तुगलकी फरमान थे। तब, ना राज्य सरकारों से ही कोई सलाह ली गई; ना ही संसद और केबिनेट मंत्रियों से।
विपक्षी पार्टियों को रौंदने के लिए ई डी को पीएमएलए (धन शोधन निवारण अधिनियम) के तहत दिया गया निरंकुश अधिकार, इसे संविधान से ऊपर रख देता है। चुनाव आयोग को मोदी चुनाव आयोग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। केंद्र की सारी एजेंसियां मोदी-शाह के अधीन विपक्षियों और विरोधियों को कुचलने वाली संस्थाएं बन चुकी हैं। मोदी-शाह और इनके अधीन एजेंसियां संविधान से ऊपर दिखने लगी हैं।
इसी तरह राजनीतिक और आर्थिक ढंग से प्रांतों का संघीय ढांचा जो पहले ही काफी कमजोर था उसे भी ढहा देने के लिए मोदी सरकार ने कमर कसी हुई है। विपक्षी राज्य सरकारों के बजट और अनुदान के हिस्से को रोक देना भी मुख्य हथियार है।
विपक्ष की राज्य सरकारों को गिराने का जहां तक सवाल है इस मामले में नेहरू सरकार ने 8 बार अनुच्छेद 356 के जरिए राज्य सरकारों को गिराया था तो इंदिरा गांधी ने 24 बार। मोदी सरकार ने भी लगभग 8 बार विपक्षी सरकारों को इस तरह गिराया। जम्मू कश्मीर में खुले आम संविधान की धज्जियां उड़ाई गईं उस पर कोर्ट ने भी मोहर लगा दी।
मोदी सरकार ने विपक्षी राज्य सरकारों को गिराने के बजाय पार्टियों को तोड़ने और अपनी सरकार बनाने का काम मुस्तैदी से किया है। राज्य सरकारों का काम करना बेहद मुश्किल कर दिया है। विधानसभाओं ने जो बिल पास किये उन्हें भाजपाई राज्यपालों ने लंबे समय तक लटका के रखा है। चुने हुए मुख्यमंत्री जेलों में ठूंसे जा रहे हैं।
कुल मिलाकर आजादी के बाद नए शासकों या काले अंग्रेजों की सर्व धर्म समभाव की यात्रा या महात्मा गांधी के ‘राम राज’ की यात्रा अब मोदी के ‘राम राज’ तक पहुंच चुकी है। इसका जवाब विपक्षी पार्टियों के पास नहीं है। ये पार्टियां भी कुछ या काफी हद तक इसी राह पर सवार हैं। इसका जवाब सिर्फ और सिर्फ मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के क्रांतिकारी संघर्षों से ही मिलना है।